22 August 2025

जीवन में अपने से जुड़े लोगों से मिलते-जुलते समय हमारा दिखावा करना या अत्याधिक अपने आप के व्यवहार में सम्पन्नता दिखाना — यह सब कुछ समय के लिए आपको धनी व सुखी इंसान होने का संकेत तो दे सकता है, लेकिन समय के साथ वास्तविकता को हम छुपा नहीं सकते। हम अपने आप को दिखावा और ढोंग के माध्यम से मानसिक तनाव के रूप में परेशानी महसूस करने लग जाते हैं।
दिखावे व बराबरी की होड़ हमें आर्थिक रूप से कमजोर ही बनाती है क्योंकि बराबरी करने के लिए हमें अपनी हैसियत व कमाई से अधिक खर्च करना पड़ता है। इससे हम कर्ज का बोझ अपने कंधों पर बेवजह उठाते हुए अपने जीवन को दुखी कर लेते हैं।
जीवन में कभी भी औरों से अधिक धनवान दिखाने में सिवाय नुकसान के कुछ भी प्राप्त नहीं होता।
अगर अपने को सुखी रखना है तो जो पास है उसमें संतोष व आनंद लेना चाहिए और यह भूल जाना चाहिए कि लोग क्या सोचेंगे।
क्योंकि अंत में व्यवस्था स्वयं की ही काम आती है। दिखावे से प्रभावित रिश्ते जीवन में कभी साथ नहीं देते।
हमारे सांसारिक जीवन में मेल-जोल का अवसर शादी-विवाह, सम्मेलन, घर में कुआं पूजन, पुत्र उत्सव या पुत्री उत्सव जैसे कार्यक्रमों में हुआ करता था। उन्हीं अवसरों पर सारे रिश्तेदार-नातेदारों से मुलाकात होती थी। लेकिन आजकल वह परंपरा भी खत्म होती जा रही है। अब तो वहां भी चर्चा होती है कि कौन कितनी महंगी कार से आया है, कितने महंगे कपड़े पहन रखे हैं, कौन-सा मोबाइल फोन हाथ में है, कौन-सी परफ्यूम लगाई है, बच्चे किस बड़े स्कूल या कॉलेज में पढ़ रहे हैं, कौन देश में है या विदेश में, कितना पैकेज ले रहा है।
हम यह भूल गए कि पहले तीन-चार भाई या पांच भाई परिवारों में रहते थे और जब इकट्ठे होते थे तो भाई-बंधु और परिवार के सदस्य साथ आते थे। चाचा-मामा और रिश्तेदारों के बीच अपनापन झलकता था। मुलाकातें दिल से होती थीं, न कि अपनी कमाई का दिखावा करने के लिए।
आजकल की शादियों का बदलता स्वरूप
पहले शादियां मोहल्ले या धर्मशाला में होती थीं। मेहमान आसपास के घरों में ठहरते थे। सब साथ बैठकर पत्तल-दोने में भोजन करते थे। गद्दे-रजाई बिछा दिए जाते थे और साधारण व्यवस्था में भी अपनापन झलकता था।
लेकिन अब हालात पूरी तरह बदल गए हैं। आजकल शादियां महंगे रिसॉर्ट्स और डेस्टिनेशन वेडिंग्स में होने लगी हैं। शादी से दो दिन पहले ही पूरा परिवार रिसॉर्ट में शिफ्ट हो जाता है और मेहमान सीधे वहीं पहुंचते हैं। जिसके पास चारपहिया वाहन है वही वहां तक पहुंच सकता है, दोपहिया वालों के लिए यह संभव नहीं।
अब निमंत्रण भी वर्गानुसार बंट गए हैं —
इस निमंत्रण में अपनापन की भावना खत्म हो चुकी है। सिर्फ मतलब के व्यक्तियों को या परिवारों को आमंत्रित किया जाता है।
कई बार देखा गया है कि जो लोग बारात में शामिल होने के लिए आते हैं उन्हें दूल्हा-दुल्हन का नाम या शकल मालूम ही नहीं होती और भविष्य में कभी दूल्हा-दुल्हन मिल जाए तो उन्हें पहचानते भी नहीं है।
शादियों का दिखावटीपन
महिला संगीत के लिए महंगे कोरियोग्राफर बुलाए जाते हैं। मेहंदी में सबको हरे कपड़े पहनने की अनिवार्यता होती है, हल्दी में पीले कुर्ते-पायजामे। जो न पहने, उसे हीन दृष्टि से देखा जाता है।
इवेंट मैनेजमेंट वालों ने शादी की परंपरा को एक प्रदर्शनी में बदल दिया है। दूल्हा-दुल्हन पर से ध्यान हटकर सजावट, डांसर्स, परफॉर्मेंस और दिखावे पर चला जाता है। 10-15 लोग आ रहे हैं अधनंगे कपड़ों में डांस करने, कोई झंडा उठा रहा है, कोई बैनर उठा रहा है, कोई टोपी पहन रहा है, कोई फूल उछाल रहा है, कोई पता नहीं वह गरीब विचित्रता के मानवता के सबूत पेश किए जाते हैं कि हां हम बहुत पैसे वाले हैं और हम इस खर्च का वहन कर सकते हैं। वह खुद भूल जाते हैं, लड़के और लड़की, वर और वधू पक्ष में दोनों लोग कि वह अपने बेटे-बेटी की शादी करने आए हैं और उनका भविष्य/जीवन जो है वह पूजा-पाठ के सहारे चलेगा, भगवान के सहारे चलेगा, इन इवेंट वालों के सहारे नहीं चलेगा। लेकिन उन दोनों पक्षकारों का पूरा ध्यान जो होता है वह इवेंट की बारीकियों पर होता है कि उसने पैर कैसा रखना है, उसने हाथ कैसे रखना है, उसने कंधे पर क्या करना है, ऐसा किया कि नहीं किया, नहीं किया तो इवेंट वाले का पैसा काट दो
फोटोग्राफर्स और वीडियोग्राफर्स 6-8 कैमरे लगाकर ऐसे-ऐसे एंगल से तस्वीरें खींचते हैं जिनका कोई मतलब नहीं होता। सैकड़ों GB डेटा इकट्ठा होता है जिसे कोई देखने की जहमत तक नहीं उठाता। लेकिन खर्चा लाखों में हो जाता है।
बारात प्रोसेशन में 5 से 10 हजार नाच-गाने पर उड़ा देते हैं।
इसके बाद रिसेप्शन स्टार्ट होता है। स्टेज पर वरमाला अब फिल्मी स्टाइल में होती है। पहले लड़की और लड़के वाले मिलकर हंसी-मजाक करके वरमाला करवाते थे। आजकल स्टेज पर धुंए की धूनी छोड़ देते हैं। दूल्हा-दुल्हन को अकेले छोड़ दिया जाता है, बाकी सब को दूर भगा दिया जाता है
और फिल्मी स्टाइल में स्लो मोशन में वह एक दूसरे को वरमाला पहनाते हैं, साथ ही नकली आतिशबाजी भी होती है। स्टेज के पास एक स्क्रीन लगा रहता है, उसमें प्री-वेडिंग शूट की वीडियो चलती रहती है। उसमें यह बताया जाता है कि शादी से पहले ही लड़की-लड़के से मिल चुकी है और कितने अंग प्रदर्शन वाले कपड़े पहन कर
कहीं चट्टान पर
कहीं बगीचे में
कहीं कुएं पर
कहीं बावड़ी में
कहीं श्मशान में, कहीं नकली फूलों के बीच अपने परिवार की ……………?
रिश्तों में आती दूरी
पहले रिश्तेदार शादी में मिलते थे तो घंटों साथ बैठते थे, बातें करते थे। अब अमीरी का दिखावा इतना बढ़ गया है कि सब अपने-अपने कमरे में बंद रहते हैं। मिलना-जुलना सिर्फ औपचारिकता भर रह गया है। एक सामान्य आदमी के लिए भी सोचो। अगर हमें भगवान ने पैसा दे दिया या दौलत और शोहरत दे दी तो उसका इतना दुरुपयोग, दिखावा या प्रदर्शन मत करो कि आपके यहां जो बारात में आया हुआ व्यक्ति है वह अपने आप पर शर्मिंदगी फील करें कि मैं कैसे वहाँ जाऊंगा? लिफाफा दूंगा चले आऊंगा। आपके लिए इंपॉर्टेंट वह भी है जिसको आपने निमंत्रण दिया है। हो सकता है वह आपके मुकाबले दौलत वाला व्यक्ति नहीं हो लेकिन उसे इतनी आत्मग्लानि फील होती है कि व्यक्ति उक्त शादी में आकर अपने आप को बौना महसूस करता है। वह तो यह जिम्मेदारी मेजबान की है कि जो अपने मेहमानों के अंदर ऐसे इंप्रेशन ना छोड़े कि वह अपने आप के अंदर गिल्ट फील करें।
लिफाफे और गिफ्ट भी अब दिखावे पर आधारित हो गए हैं। लिफाफा और गिफ्ट देने के भी हालत अब यह है कि जिन लोगों को हम सलाम ठोकते हैं उनको तो 11, 21 और 51 हजार या लाखों रुपए की गिफ्ट दी जाएगी, जबकि वह खुद बहुत सक्षम और साधन संपन्न लोग होते हैं और जो लोग हमें सलाम ठोकते हैं, वह हमारे मातहत भी हो सकते हैं और हमसे धन-संपदा में छोटे भी हो सकते हैं, तो उनको उसके लिए 2100 – 5100 का लिफाफा देकर निपटा दिया जाता है, जबकि उसके परिवार को रुपयों की ज्यादा आवश्यकता होती है।
संस्कारों का ह्रास
अक्सर देखता हूँ कि करोड़ों खर्च करने वाले लोग पंडित जी को दक्षिणा देने में एक घंटा बहस करते हैं, और मात्र 5100-11000 रुपये देकर टाल देते हैं। जबकि दूल्हे की साली सिर्फ जूते चोरी के नाम पर हज़ारों रुपये ले लेती हैं। शादी खत्म होते ही उस ब्राह्मण का, जो 12-24 घंटे से सेवा में था, कोई ध्यान भी नहीं रखता। वह दयनीय स्थिति में अपना सामान समेटकर चला जाता है।
यह विरोधाभास दुख देता है: एक मैकेनिक, प्रति विजिट जो बमुश्किल एक घंटे का काम करता है, बिना सवाल किए 500-1000 रुपये ले जाता है, जबकि एक विद्वान ब्राह्मण, जिसने वर्षों पढ़ाई की है, पूरे दिन के काम के बाद भी उचित सम्मान और पारिश्रमिक नहीं पाता।
सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि शादी अब आध्यात्मिक अनुष्ठान न होकर मनोरंजन का साधन बन गई है। न मुहूर्त का पालन होता है, न पूजा की पवित्रता का ध्यान रखा जाता है। लोग मंत्रों के बीच हँसी-मजाक करते हैं, जो इस पवित्र परंपरा के प्रति गहरी बेरुखी दर्शाता है।
मेरा अपने मध्यमवर्गीय समाज बंधुओं से निवेदन है कि —
4-5 घंटे के रिसेप्शन में अपनी जीवनभर की पूंजी मत गवा दीजिए।
इससे कहीं बेहतर है कि अपने बच्चों को स्थाई संपत्ति, सोना-चांदी दीजिए। साथ ही उनके नाम से कोई दान या सार्वजनिक सेवा कार्य भी करिए ताकि आने वाली पीढ़ी तक यह संदेश पहुंचे कि शादी सिर्फ खर्च और दिखावे की नहीं, सामाजिक जिम्मेदारी की भी होती है।
धन्यवाद,
रोटेरियन सुनील दत्त गोयल
महानिदेशक, इम्पीरियल चैंबर ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री
पूर्व उपाध्यक्ष, जयपुर स्टॉक एक्सचेंज लिमिटेड
जयपुर, राजस्थान
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Rtn. Suneel Dutt Goyal